Dec 23, 2007

न हो ऐसा कभी

चाहता हूँ की कभी ऐसा न होता
धारणाएं जो अपनी उप्योगीता खो बैठी
आ बैठी हैं भविष्य के द्वार पर
बन बैठी दरबान।
जात,पंथ,भूगोल
भाषा,बोली
इंसान को इंसान से क्यों बाटती हैं।
भय भविष्य का क्यों घर कर जाता हैं
बदला समय, बदली दिशा
हर कुछ जो हो रह, वह भिन्न हैं
पर आवश्यक नही कि वह गलत ही हो
क्या मानवता के अगले पचास वर्ष होंगे वैसे ही
जैसे बीते हैं पिछले पचास
यदि नही तो क्यो वही मापदंड अपनाए जाये,
जो हो गए हैं बस दंड।

परन्तू सत्य केवल इतना नही
क्यो भविष्य नही देखता बीते समय के प्रेम को
उसके भय को, क्यो नही दिलाता विश्वास,
अपने कर्म से, अपने आचरण से
कि यदि भूत कि कुछ धारणाएं गलत हैं तो कुछ सही भी
क्यों नही देता सम्मान उन धरनायों के पीछे छुपी भावनाओ को
क्यों नही देता सम्मान, उन परम्परों को जो हमें जोड़ती हैं हमारे स्वर्णिम इतिहास से
जोड़ती हैं जो हमें उस ज़मीं से, जिसका ऋण चुकाना अभी हैं बाक़ी
जो धर्म हैं हमारा।
क्या हैं परमपरा जो जोड़ती हैं, क्या हैं परंपरा जो बाटती हैं,

क्या दो परम्पराएँ जुड़ नही सकती
हो सकता हैं शायद एक नयी परंपरा कि शुरुरत

मूँद लेते हैं हम अपनी आखें।
नही बनाया हैं भगवान् ने हमें ईर्ष्या के लिए
दी बस दो शिक्षा
प्रेम और क्षमा
और नही दीया अधिकार हमें